बुधवार, 23 जनवरी 2013

हिरोशिमा पर नन्ही लड़की

हिरोशिमा पर नन्ही लड़की


दरवाजों पर मैं आपके
दस्तक दे रही हूं
कितने ही द्वार खटखटाए हैं मैंने
किंतु देख सकता है कौन मुझे
मरे हुओं को कोई कैसे देख सकता है

मैं मरी हिरोशिमा में
दस वर्ष पहले
मैं थी सात बरस की
आज भी हूं सात बरस की
मरे हुए बच्चों की उम्र नहीं बढ़ती

पहले मेरे बाल झुलसे
फिर मेरी आंखें भस्मीभूत हुईं
राख की ढेरी बन गई मैं
हवा जिसे फूंक मार उड़ा देती है

अपने लिए मेरी कोई कामना नहीं
मैं जो राख हो चुकी हूं
जो मीठा तक नहीं खा सकती


मैं आपके दरवाजों पर
दस्तक दे रही हूं
मुझे आपके हस्ताक्षर लेने हैं
ओ मेरे चाचा! ताऊ!
ओ मेरी चाची! ताई!

ताकि फिर बच्चे इस तरह न जलें
ताकि फिर वे कुछ मीठा खा सकें
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कविता- नाज़िम हिकमत
अनुवाद-शिवरतन थानवी
{ छोटी बच्चियों की दनिया के बारे में सोचते हुए, थोड़ा लेफ्ट-थोड़ा राइट हो इस दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश करते हुए, ये कविता मुझे यहां सटीक लगी, एक मरी हुई बच्ची इस दुनिया को संवारने की अपील कर रही है}

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